भारत तिब्बत सीमा पुलिस 40 बटालियन सी कंपनी में कार्यरत एक बदमिजाज कार्यवाहक सेनानी के उपर क्षेत्रवाद फैलाने और अपने सिपाहियों के साथ गाली-गलौज कर मारपीट किये जाने का आरोप लगा है। बताया जाता है कि बिहार प्रदेश कांग्रेस किसान सेल के उपाध्यक्ष अजीत कुमार पांडेय ने भारत तिब्बत सीमा पुलिस 40 बटालियन सी कंपनी के कार्यवाहक सेनानी विक्रांत थपरियाल के ऊपर गंभीर आरोप लगाते हुए महानिदेशक [डीजी-आईटीबीपी] भारत तिब्बत सीमा पुलिस से इस मामले की जांच किये जाने की मांग की थी, जिसके आलोक में डीजी-आईटीबीपी ने संज्ञान लेते हुए विक्रांत थपरियाल पर जांच बिठाया है।
उल्लेखनीय है कि नीरज कुमार पाण्डेय, जो भारत तिब्बत सीमा पुलिस में 40 बटालियन सी कंपनी में सिपाही के पद पर तैनात है। पिछले साल जून 2009 में उसकी तबियत खराब हो गई। चिकित्सीय जांच में टी.बी. प्रमाणित हुआ, जिसके उपरांत नीरज कुमार पाण्डेय आवेदन देने के बाद छुट्टी पर चला गया। उसके छुट्टी पर जाने के बाद पुर्वाग्रह से ग्रसित 40 बटालियन सी कंपनी के कार्यवाहक सेनानी विक्रांत थपरियाल उसे लगातार पत्र भेजकर मानसिक रूप से प्रताडि़त करता रहा। जबकि उसे लगातार चिकित्सा प्रमाण पत्र भेजा जाता रहा, बावजूद उसका प्रताड़ना जारी रहा। नीरज कुमार पाण्डेय ने पुन: 18 मार्च को कंपनी में ड्यूटी ज्वाइन कर लिया। साक्षात्कार के समय जब वह कंपनी के कार्यवाहक सेनानी विक्रांत थपरियाल के समक्ष प्रस्तुत हुआ तो बेअंदाज थपरियाल ने उसे अश्लील व क्षेत्रवादी गाली देते हुए काफी मारा-पीटा, जो खुलेआम मानवाधिकार का उलंघन था। इसके पहले भी विक्रांत थपरियाल के ऊपर कई गंभीर आरोप लग चुके है।
बताया जाता है कि भारत तिब्बत सीमा पुलिस के कार्यवाहक सेनानी विक्रांत थपरियाल बिहार व यूपी के सिपाहियों से पूर्वाग्रह रखता है, जिस के कारण वह अक्सर उस क्षेत्र के सिपाहियों के साथ बदतमीजी से पेश आता है व बेवजह उन्हे तंग करता रहता है।
इस संबंध में बिहार प्रदेश कांग्रेस किसान सेल के उपाध्यक्ष अजीत कुमार पांडेय ने बताया कि इस मामले को वे गृहमंत्रालय, मानवाधिकार आयोग और आईटीबीपी के डीजी तक से मिल चुके है। सभी ने उन्हे उचित कार्रवाई का आश्वासन दिया है।
Monday, March 29, 2010
Monday, February 1, 2010
'इब्ने बतूता ताs ताs बगल में जूता..ता..ता..पहने तो करता है चुर्र।
'इब्ने बतूता ताs ताs बगल में जूता..ता..ता..पहने तो करता है चुर्र। र्र..र्र.' शुक्रवार के रिलीज हुई फिल्म 'इश्किया' का यह गीत सचमुच मुझे बहुत दिलचस्प लगा। साढ़े चार मिनट की गुलजार की इस ताजा रचना को संगीत दिया है विशाल भारद्वाज ने और गाया है मिकी व सुखविंदर सिंह ने। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक व्यंग्य कविता में भी इब्ने बतूता है। उनका जूता है, लेकिन इस गीत में गुल़जार साहब कुछ दूसरी बात कह रहे हैं। बगल में जूता संभाले जिंदगी के सफर पर चलने को तैयार रहो। यहां चुर्र।र्र.र्र चलने का मजा है और फुर्र आसमान की मंजिल॥भाई मतलब लाजवाब है। आज फिल्म देखने के बाद मेरे एक दोस्त ने पूछा इब्ने बतूता का मतलब क्या है?
प्रोड्यूसर विशाल भारद्वाज, रमन मारू और डायरेक्टर अभिषेक चौबे की फिल्म की शुरुआत में ही रास्ते और मील के पत्थर ऩजर आते हैं। इन्हीं पत्थरों पर फिल्म के टाइटिल्स दिये गये हैं। फिल्म जिंदगी को एक सफर की तरह देखती-दिखाती है। इस गीत में बोल भी हैं। 'ऐ. ऐ. जिंदगी क्या ढोलक है, दोनों तरफ से बजती है ये..' इस सफर में खुशियां हैं तो मुश्किलें भी कम नहीं। गुल़जार साहब ऐसे शब्दों-मुहावरों में नये मीनिंग भर देते हैं, जो आमतौर पर कविता के लायक नहीं समझे जाते। सफर और इब्ने बतूता एक-दूसरे के पर्यायवाची है। इब्ने बतूता मोरक्को का एक ट्रैवलर था, जिनका जन्म क्फ्0ब् हुआ और वहीं क्फ्म्8 में वे सुपुर्दे खाक हुए। आधी जिंदगी यात्रायें करते हुए ही बितायी। मक्का, ईरान, बगदाद, यमन, सुमात्रा, चीन, दक्षिणी रूस, ईस्ट अफ्रीका, ब्लैक सी के किनारे बसे देश। अफगानिस्तान होते हुए वे सिंधु घाटी पहुंचे। क्फ्फ्फ्-क्फ्ब्ख् में वह हिंदुस्तान में रहे। यहां के बादशाह मुहम्मद तुगलक ने उन्हें काजी बना दिया। वैसे वह थे भी काजियों के खानदान से और इस्लामिक लॉ की पढ़ाई भी उन्होंने की थी, तो इब्ने बतूता न्याय के भी पर्याय हो सकते हैं। फिल्म तथा इस गीत के तीनों मुख्य किरदार खालू जान (नसीरूद्दीन शाह), बब्बन हुसैन (अरशद वारसी) और कृष्णा वर्मा (विद्या बालन) अपराध और न्याय के बीच जूझ रहे हैं। फिल्म के अंत में भी इब्ने बतूता का उल्लेख है और वे तीनों इब्ने बतूता की तरह जीवन की गुत्थियां सुलझाते हैं। पूरा गाना मस्ती में डूबा है। रंग-बिरंगी झंडियों से सजे गोरखपुर के एक ढाबे जैसे सेट पर तीनों सब कुछ भूलकर नाचते फुदकते हैं '..हो अगले मोड़ पर मौत खड़ी है..अरे मरने की भी क्या जल्दी है..' लव बनाम सेक्स का एक दूसरा द्वंद इस एडल्ट फिल्म में दिखाया गया है, उसने इसे कथित बोल्डनेस भी दी है। अभिषेक चौबे खुश हैं कि गंदी गालियों से भरपुर उनकी पहली फिल्म पर सेंसर की कैंची नहीं चली। हांलाकि इससे इतर गुल़जार के गीतों की रूमानियत और सहज फलसफाना अंदा़ज ज्यादा रिलीफ देता है। -'दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी.'
प्रोड्यूसर विशाल भारद्वाज, रमन मारू और डायरेक्टर अभिषेक चौबे की फिल्म की शुरुआत में ही रास्ते और मील के पत्थर ऩजर आते हैं। इन्हीं पत्थरों पर फिल्म के टाइटिल्स दिये गये हैं। फिल्म जिंदगी को एक सफर की तरह देखती-दिखाती है। इस गीत में बोल भी हैं। 'ऐ. ऐ. जिंदगी क्या ढोलक है, दोनों तरफ से बजती है ये..' इस सफर में खुशियां हैं तो मुश्किलें भी कम नहीं। गुल़जार साहब ऐसे शब्दों-मुहावरों में नये मीनिंग भर देते हैं, जो आमतौर पर कविता के लायक नहीं समझे जाते। सफर और इब्ने बतूता एक-दूसरे के पर्यायवाची है। इब्ने बतूता मोरक्को का एक ट्रैवलर था, जिनका जन्म क्फ्0ब् हुआ और वहीं क्फ्म्8 में वे सुपुर्दे खाक हुए। आधी जिंदगी यात्रायें करते हुए ही बितायी। मक्का, ईरान, बगदाद, यमन, सुमात्रा, चीन, दक्षिणी रूस, ईस्ट अफ्रीका, ब्लैक सी के किनारे बसे देश। अफगानिस्तान होते हुए वे सिंधु घाटी पहुंचे। क्फ्फ्फ्-क्फ्ब्ख् में वह हिंदुस्तान में रहे। यहां के बादशाह मुहम्मद तुगलक ने उन्हें काजी बना दिया। वैसे वह थे भी काजियों के खानदान से और इस्लामिक लॉ की पढ़ाई भी उन्होंने की थी, तो इब्ने बतूता न्याय के भी पर्याय हो सकते हैं। फिल्म तथा इस गीत के तीनों मुख्य किरदार खालू जान (नसीरूद्दीन शाह), बब्बन हुसैन (अरशद वारसी) और कृष्णा वर्मा (विद्या बालन) अपराध और न्याय के बीच जूझ रहे हैं। फिल्म के अंत में भी इब्ने बतूता का उल्लेख है और वे तीनों इब्ने बतूता की तरह जीवन की गुत्थियां सुलझाते हैं। पूरा गाना मस्ती में डूबा है। रंग-बिरंगी झंडियों से सजे गोरखपुर के एक ढाबे जैसे सेट पर तीनों सब कुछ भूलकर नाचते फुदकते हैं '..हो अगले मोड़ पर मौत खड़ी है..अरे मरने की भी क्या जल्दी है..' लव बनाम सेक्स का एक दूसरा द्वंद इस एडल्ट फिल्म में दिखाया गया है, उसने इसे कथित बोल्डनेस भी दी है। अभिषेक चौबे खुश हैं कि गंदी गालियों से भरपुर उनकी पहली फिल्म पर सेंसर की कैंची नहीं चली। हांलाकि इससे इतर गुल़जार के गीतों की रूमानियत और सहज फलसफाना अंदा़ज ज्यादा रिलीफ देता है। -'दिल तो बच्चा है जी, थोड़ा कच्चा है जी.'
Tuesday, January 26, 2010
सभी देशवासियों को ६१ वे गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं।
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमाराहम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा
गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन मेंसमझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा
परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ कावो संतरी हमारा, वो पासवां हमारा
गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियाँगुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनां हमारा
ऐ आब-ए-रौंद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझकोउतरा तेरे किनारे, जब कारवां हमारा
मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखनाहिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा
यूनान, मिस्र, रोमां, सब मिट गए जहाँ से ।अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारीसदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ हमारा
'इक़बाल' कोई मरहूम, अपना नहीं जहाँ मेंमालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहां हमारा
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमाराहम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा
गुरबत में हों अगर हम, रहता है दिल वतन मेंसमझो वहीं हमें भी, दिल हो जहाँ हमारा
परबत वो सबसे ऊँचा, हमसाया आसमाँ कावो संतरी हमारा, वो पासवां हमारा
गोदी में खेलती हैं, जिसकी हज़ारों नदियाँगुलशन है जिसके दम से, रश्क-ए-जिनां हमारा
ऐ आब-ए-रौंद-ए-गंगा! वो दिन है याद तुझकोउतरा तेरे किनारे, जब कारवां हमारा
मजहब नहीं सिखाता, आपस में बैर रखनाहिन्दी हैं हम वतन हैं, हिन्दोस्तां हमारा
यूनान, मिस्र, रोमां, सब मिट गए जहाँ से ।अब तक मगर है बाकी, नाम-ओ-निशां हमारा
कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारीसदियों रहा है दुश्मन, दौर-ए-जहाँ हमारा
'इक़बाल' कोई मरहूम, अपना नहीं जहाँ मेंमालूम क्या किसी को, दर्द-ए-निहां हमारा
सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्तां हमाराहम बुलबुलें हैं इसकी, यह गुलिसतां हमारा
सभी देशवासियों को ६१ वे गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं। जय हिंद!
Wednesday, December 23, 2009
क्या भोजपुरी भाषा का विरोध करना या उसे आठवीं अनुसूची से वंचित रखना न्यायोचित है ???? अजीत दुबे
(अजीत दुबे) भोजपुरी हमार मां मूल मंत्र था 29-30 अगस्त 2009 को मारीशस में संपन्न हुए विश्व भोजपुरी सम्मेलन का, जिसका उद्घाटन राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ ने किया। उनकी एक ऐतिहासिक घोषणा कि प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम ने मारीशस की संसद में विधेयक पेश किया है कि अंग्रेजी और क्रियोल की भांति भोजपुरी भी राजकीय भाषा होगी ने उपस्थित 16 देशों के प्रतिनिधियों के मन में अपार गर्व और गौरव का बोध कराया। जहां एक तरफ विदेशों में भोजपुरी को इतना सम्मान मिल रहा है,वहीं भारत में आज भी यह समुचित मान्यता से वंचित है।भारतीय संविधान के निर्माताओं ने हिंदी को राजभाषा की मान्यता दी। साथ ही यह भी व्यवस्था की कि सरकार का यह दायित्व होगा कि वह अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का भी विकास करे। इस व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए संविधान की आठवीं अनुसूची में 14 भाषाओं को शुरू में शामिल किया गया। वर्ष 1967 में संविधान के इक्कीसवें संशोधन द्वारा सिंधी को लोगों की मांग के आधार पर आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया। इसी तरह संविधान के 71वें संशोधन द्वारा कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली और 92वें संशोधन द्वारा बोडो, डोगरी, मैथिली और संथाली को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया। इन भाषाओं को शामिल करने के पीछे भी वही कारण बताया गया कि यह लोगों की मांग थी। ऐसी ही जोरदार मांग भोजपुरी के लिए भी होती रही है, लेकिन इस पर सरकार का ध्यान अभी तक नहीं जा सका है। सिंधी और नेपाली को किसी भी भारतीय राज्य की भाषा न होते हुए भी शामिल किया गया, लेकिन देश-विदेश में बड़े पैमाने पर बोली जाने वाली और समृद्ध साहित्य वाली भोजपुरी को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। अगर बोलने वालों की संख्या को ध्यान में रखा जाए तो उपरोक्त आठ भाषाएं भोजपुरी के आगे कहीं भी नहीं ठहरती हैं। इन आठों भाषाओं को बोलने वालों की संख्या 2001 की जनगणना के मुताबिक लगभग 3 करोड़ है, जबकि भोजपुरी बोलने वालों की संख्या 18 करोड़ से अधिक है। यदि बोलने वालों की संख्या की अपेक्षा मांग ही अहम है तो यह मांग भोजपुरी-भाषियों द्वारा भी लगातार होती रही है। भोजपुरी एक व्यापक और समृद्ध भाषा है। कलकत्ता विश्वविद्यालय में आरंभ से ही यह भाषा स्नातक स्तर तक के पाठ््यक्रम में शामिल रही है। पटना विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद वहां भी इसे पाठ््यकय में शामिल किया गया। बिहार के कई विश्वविद्यालयों में यह आज भी पढ़ाई जाती है। गुलाम भारत में अंग्रेजों ने तो इसे आदर और सम्मान दिया, लेकिन आजादी के बाद देसी सरकार से इसे उपेक्षा और तिरस्कार के तीखे दंश ही सहने पड़ रहे हैं। गांधीवादी होने का दावा करने वाले दलों और सरकारों के लिए स्वदेशी का कोई महत्व नहीं रह गया है। चाहे वह तकनीकी हो या संस्कृति, परंपरा हो या शिक्षा-पद्धति या भाषा ही क्यों न हो। अन्यथा क्या कारण है कि मात्र 10 वर्षो के लिए काम-काज की भाषा के रूप में स्वीकृत अंग्रेजी आज भी हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के सिर पर सवार है। भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग के परिप्रेक्ष्य में वर्ष 2006 में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जयसवाल ने लोकसभा को बताया था कि केंद्र सरकार भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने पर विचार कर रही है। इससे दो साल पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने सदन को आश्वासन दिया था कि भोजपुरी को जल्द ही आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाएगा। जयसवाल ने वर्ष 2007 में भी कुछ ऐसा ही बयान दिया था। आठवीं अनुसूची में भारतीय भाषाओं को शामिल करने के लिए मानदंड स्थापित करने के उद्देश्य से उच्च अधिकार संपन्न एक समिति का गठन किया गया था, जिसने अप्रैल 1998 में रिपोर्ट दे दी थी। उक्त समिति ने आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के लिए कुछ मानदंडों की अनुशंसा की थी। पहला, वह भाषा राज्य की राजभाषा हो, दूसरा, राज्य विशेष की आबादी के बड़े हिस्से द्वारा बोली जाती हो, तीसरा, साहित्य अकादमी द्वारा मान्यता प्राप्त हो और चौथा, इसका समृद्ध साहित्य हो। उपरोक्त मानदंडों पर भोजपुरी अन्य आठ भाषाओं की अपेक्षा अधिक खरी उतरती है। भोजपुरी में कई महान साहित्यकार हुए हैं, जिन्होंने अनेक कालजयी साहित्य की रचना की है। हिंदी भाषा के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा उनके बाद प्रेमचंद और हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं अन्य कई समकालीन साहित्यकार भोजपुरी क्षेत्र से आए हैं, जिनके लिए भोजपुरी ने प्रेरणा स्त्रोत के रूप में काम किया है। भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपीयर कहा जाता है। भोजपुरी के साथ कुछ अन्य भाषाओं के लिए भी मांग उठती रही है। इसके विरोध में यह तर्क दिया जा रहा है कि यदि बहुत-सी भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया तो रिजर्व बैंक के लिए उन सभी भाषाओं को नोट पर छापना असंभव हो जाएगा, क्योंकि नोट पर इतनी जगह नहीं है। दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि संघ लोक सेवा आयोग भी पर्याप्त मूलभूत सुविधा के अभाव में आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में परीक्षा लेने में समर्थ नहीं है। ये दोनों कारण तर्कसंगत नहीं हैं। न तो आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं का नोट पर छापना अनिवार्य है और न ही सभी भाषाओं में परीक्षा लेना। इस संदर्भ में संयुक्त राज्य अमेरिका का उदाहरण देना समीचीन होगा। प्रारंभ में अमेरिका में 13 राज्य थे। उनके प्रतीक रूप में अमेरिकी झंडे में 13 धारियां बनाई गई, जो कि उनके प्राचीन गौरव का प्रतीक है। कालांतर में वहां राज्यों की संख्या बढ़ती गई, जिनके प्रतीक स्वरूप झंडे में सितारों को दर्शाया गया और इस तरह वर्तमान में कुल 50 राज्यों के लिए 50 तारे अमेरिकी झंडे में शोभायमान हैं। इस तरह मूल और नए राज्य, दोनों को समुचित प्रतीक के रूप में झंडे में दर्शाया गया है। रिजर्व बैंक और संघ लोक सेवा आयोग की समस्याओं के समाधान के लिए अमेरिकी झंडे के उदाहरण को ध्यान में रखा जा सकता है यानी नोटों पर केवल प्रारंभिक 14 भाषाओं में ही लिखा जा सकता है और बाद में शामिल की गई भाषाओं को किसी संकेत के रूप में दर्शाया जा सकता है। इसी तरह संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं के बारे में निर्णय लिया जा सकता है। एक दूसरा विकल्प भी सोचा जा सकता है। बोलने वालों की संख्या के आधार पर 10 बड़ी भाषाओं का नाम ही नोटों पर लिखा जाए और अन्य भाषाओं को किसी संकेत के रूप में दिखाया जाए। संघ लोक सेवा आयोग भी केवल 10 बड़ी भाषाओं को ही परीक्षा का माध्यम बनाने की व्यवस्था रखे और अन्य भाषाओं को विकल्प के रूप में मान्यता दे दे। इस तरह रिजर्व बैंक और संघ लोक सेवा आयोग की समस्याओं का समाधान हो जाएगा, लेकिन केवल इसी समस्या के नाम पर भोजपुरी भाषा का विरोध करना या आठवीं अनुसूची से वंचित रखना बिल्कुल न्यायोचित नहीं है।
(लेखक भोजपुरी समाज, दिल्ली के अध्यक्ष है- इनके ब्लॉग पर जाने के लिये क्लिक करे) http://ajitdubeydelhi.blogspot.com/
(लेखक भोजपुरी समाज, दिल्ली के अध्यक्ष है- इनके ब्लॉग पर जाने के लिये क्लिक करे) http://ajitdubeydelhi.blogspot.com/
Tuesday, December 8, 2009
आशाराम बापू ने अपने आश्रम में अब तक 25 लड़कों का मर्डर करवाया है। ड्रामाबाज संत का एक और सच..
आशाराम बापू ने अपने आश्रम में अब तक 25 लड़कों का मर्डर करवाया है। आशाराम और इसका नालायक बेटा नारायण स्वामी आश्रम के युवक और युवतियों का यौन शोषण करते है। अगर इसकी सीबीआई जांच कराई जाए तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। यह खुलासा किया है आशाराम के बेटे नारायण स्वामी के सचिव रह चुके महेंद्र चावला ने। नारायण स्वामी के पूर्व सचिव ने आज अपनी जानमाल की रक्षा की गुहार सरकार से लगाते हुए इस संबंध में एक मामला दर्ज कराया है। बकौल महेंद्र चावला नारायण स्वामी ने उसे जान से मारने की धमकी दी है।उधर, अपने ऊपर लगे आरोपों से बौखलाये तथाकथित संत आशाराम बापू ने अब सरकार, पुलिस और मीडिया को ही ललकारते हुए परिणाम भुगतने की चेतावनी दी है। सत्संग के दौरान घड़ी-घड़ी ड्रामा करने वाले इस तथाकथित संत ने सोमवार को अपने सैकड़ों अनुवायियों को भड़काते हुए धमकी भरे अंदाज में कहा कि अगर एक महीने के अंदर आरोप लगाने वालों व मीडिया को नहीं निपटाया तो मैं ढाढी मुंछ मुड़वा लूंगा। इस संत ने खुलेआम अपने अनुवायियों को भड़काते हुए नरेंद्र मोदी की सरकार, पुलिस और मीडिया को धमकी दी है। आखिर एक महीने में यह तथाकथित संत क्या कर लेगा? आखिर यह संत अपने भक्तों की भावनाओं को भड़का कर क्या साबित करना चाहता है?तो क्या कानूनी शिकंजा कसने के बाद इस तथाकथित संत का मानसिक संतुलन खराब होता जा रहा है?..
Sunday, December 6, 2009
आशाराम बापू का सच..यह संत है या शैतान
आशाराम बापू का कई महिलाओं के साथ अवैध रिश्ता है। यह संत के भेष में हवस का पुजारी है। आशाराम बापू को मैने आश्रम की कई साधिकाओं के साथ शारीरिक संबंध बनाते हुए देखा है। यह काला जादू करता है। महिलाओं पर यह तीन-तीन घंटे तक तांत्रिक क्रिया करता है। बाद में उनमें कई के साथ शारीरिक संबंध भी बनाता है। जी, हां अपने आप को स्ंवभू भगवान मानने वाले आशाराम बापू का यह सच है। इस सच का खुलासा किया है राजू चांडक ने। राजू चांडक आशाराम का सबसे करीबी पूर्व अनुयायी है। राजू चांडक के इस खुलासे से एक बार फिर धर्म का चोला ओढ़ कर लोगों की भावनाओं से खेलने वाले पाखंडी संतों की मानसिकता उजागर हुई है। वैसे तो धर्म के नाम पर देश में तमाम चोर उचक्के संत बन कर लोगों को बेवकूफ बनाते रहते है। परंतु आशाराम जैसे तथाकथित संतों की असलियत अगर यही है तो इस देश का भगवान ही मालिक है। मैने देखा है लोगों को आंख बंद कर आशाराम के सत्संगों में दौड़ जाते है, सबसे ज्यादा दीवानगी तो महिलाओं में होती है। तो क्या..आशाराम पहले भी कई विवादों में घिरे रहे है। आशाराम के बेटे पर भी आश्रम की कई साधिकाओं के साथ यौन शोषण का आरोप लग चुका है। जुलाई 2008 में अहमदाबाद स्थित उनके आश्रम में दो छात्र रहस्यमय परिस्थितियों में मृत पाए गए थे। उन पर काला जादू कर तांत्रिक क्रिया किये जाने का आरोप लगा था। उस मामले में अभी भी आशाराम संदेह के घेरे में है। उनके अनुयायियों पर सूरत में जमीन हड़पने के भी आरोप हैं। पिछले माह उनके करीब 200 अनुयायियों को एक रैली के दौरान पुलिस पर पथराव करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। अपने आप को संत कहने वाले आशाराम खुलेआम मीडिया से कई बार गाली-गलौज कर चुके है। अगर वास्तव में संत का आचरण ऐसा होगा तो शैतान कैसा होगा, हम इसकी कल्पना कर सकते है।
shabhar- http://impact25.blogspot.com/
Wednesday, December 2, 2009
देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद का गांव बदहाली व उपेक्षा का शिकार
नई दिल्ली [चंदन जायसवाल]। दुनिया के हर देश जिस तरह अपने युगपुरुषों के धरोहरों को संजो कर रखते है, उसी तरह भारत भी अपने युगपुरुषों की धरोहरों, स्मृति और प्रतीक चिंहों को संजो कर रखे हुए है। देश ने जहां महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादूर शास्त्री आदि के समाधि, स्मृति व गांवों में बसे उनकी यादों को संजो कर संरक्षित किए हुए है, वहीं इन सभी महापुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिला कर आजादी की लड़ाई लड़ने वाले देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद का गांव बदहाली व उपेक्षा का शिकार है।
उनके पैतृक निवास को भले ही भारतीय पुरातत्व विभाग ने संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया है, परंतु विकास का तो यहां से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। सिवान जिला मुख्यालय से लगभग 16 किलोमीटर दूर जीरादेई गांव में डा. राजेंद्र प्रसाद का जन्म तीन दिसंबर 1884 को मुंशी महादेव सहाय के परिवार में हुआ था। लगभग 5 बीघा जमीन में फैले उनके इस निवास में महात्मा गांधी के ठहरने के कमरे सहित कई कमरों में खिड़की-किवाड़ तक नहीं है, जो है वो भी सड़ चुका है।
गांव के अंदर राजेंद्र बाबू का कोठी के मुख्य द्वार से बाएं तरफ एक पुराना कुंआ है। लोग बताते है कि इसी कुंए से राजेंद्र बाबू समेत उनका परिवार पानी पीता था। कुएं से आगे बाएं तरफ एक कैटल हाउस है, जो अब वीरान हो चुका है। मुख्य द्वार से दाहिनी तरफ तीन जर्जर कमरे है, जहां कभी औषधालय हुआ करता था। बिहार में नई सरकार बनने के बाद जीरादेई को प्रखंड का दर्जा दिया जा चुका है, परंतु यहां की बदहाली में कोई बदलाव नहीं आया। तमाम आश्वासनों के बावजूद गांव के एक मात्र राजेंद्र स्मारक महाविद्यालय को मान्यता नहीं मिल सकी है। इसी तरह शिक्षकों और कमरों के अभाव में राजेंद्र बाबू के बड़े भाई के नाम पर चल रहे विद्यालय की स्थिति दयनीय है। मध्य विद्यालय और कन्या विद्यालय की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है।
गांव में चिकित्सा व्यवस्था की हालत तो और भी दयनीय है। जीरादेई के मवेशी अस्पताल में थाना चल रहा है, जबकि छह शैय्या वाले अस्पताल के अधिकांश हिस्से पर पुलिस का कब्जा है। गांव में एक आयुर्वेदिक अस्पताल है, जिसका उद्घाटन खुद तत्कालिन राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने ही किया था, परंतु वह भी अपने हालात पर आंसू बहा रहा है। भवन इतना जर्जर हो चुका है कि यह कभी भी ढह सकता है। गांव में न को कोई पुस्तकालय है, न शुद्ध पानी की कोई व्यवस्था। सड़क और बिजली की स्थिति तो बेहद दयनीय है।
यहां अशिक्षा और बेरोजगारी का आलम यह है कि युवा पीढ़ी नशे की गिरफ्त में है। शराब बिक्री के सख्त विरोधी रहे राजेंद्र बाबू के गांव में शराब की अवैध बिक्री धड़ल्ले से हो रही है। अवैध शराब के कारोबार ने यहां की युवा पीढ़ी को बर्बादी के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है। देशरत्न के गांव की बदहाली पर सिवान से नवनिर्वाचित निर्दलिय सांसद ओमप्रकाश यादव भी मानते है कि राजेंद्र बाबू की जन्मस्थली सरकार की नजरों से उपेक्षित है। पहली बार सांसद बने ओमप्रकाश यादव का कहना है कि जीरादेई को एक पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करने हेतु मैं प्रयासरत हूं। इसके लिए मुझे सरकार की तरफ से विश्वास दिलाया गया है कि केंद्र सरकार जल्द ठोस कदम उठाएगी। उनका कहना था कि पुलिस थाना के लिए जमीन अधिगृहीत हो चुका है, लेकिन फंड के अभाव में मवेशी अस्पताल में थाना चल रहा है। इस समस्या का भी समाधान शीघ्र हो जाएगा।
बहरहाल, देशरत्न के गांव का हाल देख कर मवेशियों का चारागाह बने राजेंद्र शिशु उद्यान में उनकी प्रतिमा के नीचे अंकित ये पक्तियां-
हारिए ना हिम्मत बिसारिए ना हरिनाम
.जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए। ..उनके चाहने वालों को जरूर थोड़ी सांत्वना देती रहती है।
उनके पैतृक निवास को भले ही भारतीय पुरातत्व विभाग ने संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया है, परंतु विकास का तो यहां से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। सिवान जिला मुख्यालय से लगभग 16 किलोमीटर दूर जीरादेई गांव में डा. राजेंद्र प्रसाद का जन्म तीन दिसंबर 1884 को मुंशी महादेव सहाय के परिवार में हुआ था। लगभग 5 बीघा जमीन में फैले उनके इस निवास में महात्मा गांधी के ठहरने के कमरे सहित कई कमरों में खिड़की-किवाड़ तक नहीं है, जो है वो भी सड़ चुका है।
गांव के अंदर राजेंद्र बाबू का कोठी के मुख्य द्वार से बाएं तरफ एक पुराना कुंआ है। लोग बताते है कि इसी कुंए से राजेंद्र बाबू समेत उनका परिवार पानी पीता था। कुएं से आगे बाएं तरफ एक कैटल हाउस है, जो अब वीरान हो चुका है। मुख्य द्वार से दाहिनी तरफ तीन जर्जर कमरे है, जहां कभी औषधालय हुआ करता था। बिहार में नई सरकार बनने के बाद जीरादेई को प्रखंड का दर्जा दिया जा चुका है, परंतु यहां की बदहाली में कोई बदलाव नहीं आया। तमाम आश्वासनों के बावजूद गांव के एक मात्र राजेंद्र स्मारक महाविद्यालय को मान्यता नहीं मिल सकी है। इसी तरह शिक्षकों और कमरों के अभाव में राजेंद्र बाबू के बड़े भाई के नाम पर चल रहे विद्यालय की स्थिति दयनीय है। मध्य विद्यालय और कन्या विद्यालय की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है।
गांव में चिकित्सा व्यवस्था की हालत तो और भी दयनीय है। जीरादेई के मवेशी अस्पताल में थाना चल रहा है, जबकि छह शैय्या वाले अस्पताल के अधिकांश हिस्से पर पुलिस का कब्जा है। गांव में एक आयुर्वेदिक अस्पताल है, जिसका उद्घाटन खुद तत्कालिन राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने ही किया था, परंतु वह भी अपने हालात पर आंसू बहा रहा है। भवन इतना जर्जर हो चुका है कि यह कभी भी ढह सकता है। गांव में न को कोई पुस्तकालय है, न शुद्ध पानी की कोई व्यवस्था। सड़क और बिजली की स्थिति तो बेहद दयनीय है।
यहां अशिक्षा और बेरोजगारी का आलम यह है कि युवा पीढ़ी नशे की गिरफ्त में है। शराब बिक्री के सख्त विरोधी रहे राजेंद्र बाबू के गांव में शराब की अवैध बिक्री धड़ल्ले से हो रही है। अवैध शराब के कारोबार ने यहां की युवा पीढ़ी को बर्बादी के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है। देशरत्न के गांव की बदहाली पर सिवान से नवनिर्वाचित निर्दलिय सांसद ओमप्रकाश यादव भी मानते है कि राजेंद्र बाबू की जन्मस्थली सरकार की नजरों से उपेक्षित है। पहली बार सांसद बने ओमप्रकाश यादव का कहना है कि जीरादेई को एक पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करने हेतु मैं प्रयासरत हूं। इसके लिए मुझे सरकार की तरफ से विश्वास दिलाया गया है कि केंद्र सरकार जल्द ठोस कदम उठाएगी। उनका कहना था कि पुलिस थाना के लिए जमीन अधिगृहीत हो चुका है, लेकिन फंड के अभाव में मवेशी अस्पताल में थाना चल रहा है। इस समस्या का भी समाधान शीघ्र हो जाएगा।
बहरहाल, देशरत्न के गांव का हाल देख कर मवेशियों का चारागाह बने राजेंद्र शिशु उद्यान में उनकी प्रतिमा के नीचे अंकित ये पक्तियां-
हारिए ना हिम्मत बिसारिए ना हरिनाम
.जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए। ..उनके चाहने वालों को जरूर थोड़ी सांत्वना देती रहती है।
**साभार --- जागरण http://in.jagran.yahoo.com/
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