कई जिंदगियां और महत्वाकांक्षाएं उनकी कर्जदार हैं लेकिन आज वह अपनी जिंदगी बचाने के लिए किसी कर्ज का मुंह ताक रहे हैं। ऐसा इसलिए कि भारत में हम उपलब्धियों की पूजा करते हैं लेकिन प्रतिभाओं की कद्र नहीं करते। मगन बिस्सा की गिनती देश के सबसे कुशल पर्वतारोहियों में होती है, लेकिन आज वह दिल्ली के एक गुमनाम से अस्पताल में जिंदगी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं, केवल पर्वतारोहण के लिए अपने जुनून की वजह से। मदद के अभाव में महंगा इलाज उनके दम पर भारी पड़ रहा है।
1984 में मगन बिस्सा केवल इसलिए माउंट एवरेस्ट पर कदम नहीं रख पाए क्योंकि शिखर से महज तीन सौ मीटर नीचे उन्होंने अपना ऑक्सीजन सिलेंडर वहां उखड़ती सांसों के साथ बैठे एक पर्वतारोही को दे दिया। उसकी सांसें बनाए रखने के लिए उन्होंने अपनी सांसों में पल रहे एवरेस्ट पर विजय के सपने को बर्फ में दफन कर दिया। उस समय वह उस दल का हिस्सा थे जिसमें बछेंद्री पाल देश की पहली महिला एवरेस्ट विजेता बनी थी। बछेंद्री की उसी जीत के 25 साल और एवरेस्ट पर पहले भारतीय अभियान के 50 साल पूरे होने की याद में जब उत्तरकाशी के नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग [एनआईएम] ने इस साल पहली बार एवरेस्ट पर एक अभियान दल भेजा तो बिस्सा उसके भी सदस्य थे। लेकिन दक्षिणी सिरे से चढ़ाई में 23500 फुट की ऊंचाई पर स्थित कैंप 3 से नीचे आते वक्त दुर्र्दात माने जाने वाले खुंभु आइसफॉल के निकट कई पर्वतारोही दल जबरदस्त हिमस्खलन की चपेट में आ गए।
यह 7 मई की बात है। उसी रात कैंप 1 में बिस्सा की तबियत बेहद खराब हो गई। उन्हें तड़के हेलीकॉप्टर से काठमांडू भेजा गया। पता चला कि उनकी आंतों में गैंगरीन हो गया है। 8 मई को वहां उनका ऑपरेशन हुआ और उनकी 22 फुट लंबी छोटी आंतों में से 18 फुट हिस्सा काटकर निकाल देना पड़ा। 19 मई को उन्हें वहां से छुट्टी मिली और 20 मई को वह दिल्ली होते हुए अपने गृह नगर बीकानेर पहुंचे। अगले दिन 21 मई को एनआईएम के दल के दस लोगों ने एवरेस्ट पर झंडा लहराया। शुरू में कैंप 3 के बाद जिन दस लोगों को शिखर पर चढ़ने के लिए चुन गया था, उनमें बिस्सा भी एक थे। लेकिन न तो शिखर पर पहुंचकर और न उसके बाद एनआईएम ने अपने साथी को याद किया।
बिस्सा उसके बाद कभी ठीक नहींहो पाए। इलाज के लिए बीच-बीच में दिल्ली आते रहे। कुछ दिन सुधार के रहे लेकिन हर बार शरीर साथ छोड़ देता था। पिछली 12 सितंबर को उन्हें फिर दिल्ली लाया गया। अगले ही दिन दिल्ली के सुदूर कोने में वसंत कुंज में स्थित दिल्ली सरकार के इंस्टीट्यूट ऑफ लीवर एंड बाइलरी साइंसेज [आईएलबीएस] में उनका दूसरा और 27 सितंबर को तीसरा ऑपरेशन हुआ। हालत उनकी गंभीर है और डॉक्टर कुछ कहने की स्थिति में नहीं। लेकिन इलाज बहुत महंगा है। काठमांडू से लेकर दिल्ली तक उनका परिवार इलाज पर अब तक लगभग नौ लाख रुपये खर्च कर चुका है। आईएलबीएस में इलाज पर रोजाना बीस हजार रुपये खर्च आ रहा है। लेकिन मदद के लिए हाथ आगे नहींआ रहे हैं।
जिस संस्थान के दल का वह हिस्सा थे, उसने संसाधन न होने की बात कहकर मदद करने से पल्ला झाड़ लिया। एनआईएम की स्थापना अक्टूबर 1965 में हुई थी और इसका संचालन रक्षा मंत्रालय और उत्तराखंड सरकार द्वारा संयुक्त रूप से किया जाता है। केंद्रीय रक्षा मंत्री इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री इसके पदेन उपाध्यक्ष। यहां के प्रिंसिपल और वाइस प्रिंसिपल दोनों ही सेना से डेपुटेशन पर आए अफसर होते हैं। ऐसे में इस संस्थान का यह कहना कि उसके पास बिस्सा के इलाज में मदद करने के लिए संसाधनों का अभाव है, हैरान कर देने वाली बात है, जबकि हादसा अभियान के दौरान हुआ था।
तमाम मानकों के अनुरूप अभियान के दौरान होने वाले किसी भी हादसे की नैतिक जिम्मेदारी दल की होती है। संस्थान के प्रिंसिपल कर्नल एम.एम. मसूर खुद अभियान दल के नेता थे। लेकिन मदद करना तो दूर अभियान के बाद एनआईएम ने बिस्सा का हाल तक नहीं लिया। क्रूरता देखिए कि उलटे एनआईएम ने बिस्सा की पत्नी सुषमा से पति के साथ हेलीकॉप्टर में कैंप 1 से काठमांडू आने का एक लाख रुपये का किराया मांग लिया। सुषमा खुद एवरेस्ट अभियान में शामिल थीं, लेकिन वह छोड़कर चली आईं। मसूर दिल्ली में होने के बावजूद उन्हें देखने अस्पताल तक नहीं गए, जबकि बिस्सा एनआईएम के लाइफ मेंबर हैं जो बहुत गिने-चुने होते हैं। इतना ही नहीं, पर्वतारोहण में योगदान के लिए उन्हें सेना पदक मिला हुआ है।
बिस्सा की मदद न ही उनके प्रदेश राजस्थान की सरकार ने की, जबकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उनकी हालत से वाकिफ हैं। पर्वतारोहण के लिए नामाकूल राजस्थान जैसे प्रदेश में बिस्सा को इस क्षेत्र का जनक माना जाता है। बिस्सा को दिल्ली सरकार और उनके खेल मंत्री ने भी नहींपूछा, जहां कई महीनों से उनका इलाज चल रहा है। न ही उनकी सुध हमारे केंद्रीय खेल मंत्री एम.एस. गिल ने ली, जबकि गिल खुद पर्वतारोहण की शीर्ष संस्था इंडियन माउंटेनियरिंग फाउंडेशन [आईएमएफ] के अध्यक्ष रह चुके हैं और बिस्सा को व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं। हां, आईएमएफ ने बेशक अपने स्तर पर डेढ़ लाख रुपये की मदद बिस्सा को दी है। बिस्सा आईएमएफ के भी स्थायी सदस्य हैं। वह नेशनल एडवेंचर फाउंडेशन के राजस्थान व गुजरात चैप्टर के निदेशक भी हैं।
बिस्सा को यह कहने वाले कई मिले कि अगर वे एवरेस्ट चढ़ जाते तो उन्हें करोड़ों मिल जाते। लेकिन एवरेस्ट की राह में पिछले 25 सालों से भी ज्यादा वक्त में उन्होंने कई लोगों की जानें बचाईं, कई को मुसीबत से निकाला, कई लोगों के सपने पूरे करने में जीजान लग दी, कई अभियानों के रास्ते तैयार किए.. क्या उन सबका कोई मोल नहीं? [उपेंद्र स्वामी]
1984 में मगन बिस्सा केवल इसलिए माउंट एवरेस्ट पर कदम नहीं रख पाए क्योंकि शिखर से महज तीन सौ मीटर नीचे उन्होंने अपना ऑक्सीजन सिलेंडर वहां उखड़ती सांसों के साथ बैठे एक पर्वतारोही को दे दिया। उसकी सांसें बनाए रखने के लिए उन्होंने अपनी सांसों में पल रहे एवरेस्ट पर विजय के सपने को बर्फ में दफन कर दिया। उस समय वह उस दल का हिस्सा थे जिसमें बछेंद्री पाल देश की पहली महिला एवरेस्ट विजेता बनी थी। बछेंद्री की उसी जीत के 25 साल और एवरेस्ट पर पहले भारतीय अभियान के 50 साल पूरे होने की याद में जब उत्तरकाशी के नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग [एनआईएम] ने इस साल पहली बार एवरेस्ट पर एक अभियान दल भेजा तो बिस्सा उसके भी सदस्य थे। लेकिन दक्षिणी सिरे से चढ़ाई में 23500 फुट की ऊंचाई पर स्थित कैंप 3 से नीचे आते वक्त दुर्र्दात माने जाने वाले खुंभु आइसफॉल के निकट कई पर्वतारोही दल जबरदस्त हिमस्खलन की चपेट में आ गए।
यह 7 मई की बात है। उसी रात कैंप 1 में बिस्सा की तबियत बेहद खराब हो गई। उन्हें तड़के हेलीकॉप्टर से काठमांडू भेजा गया। पता चला कि उनकी आंतों में गैंगरीन हो गया है। 8 मई को वहां उनका ऑपरेशन हुआ और उनकी 22 फुट लंबी छोटी आंतों में से 18 फुट हिस्सा काटकर निकाल देना पड़ा। 19 मई को उन्हें वहां से छुट्टी मिली और 20 मई को वह दिल्ली होते हुए अपने गृह नगर बीकानेर पहुंचे। अगले दिन 21 मई को एनआईएम के दल के दस लोगों ने एवरेस्ट पर झंडा लहराया। शुरू में कैंप 3 के बाद जिन दस लोगों को शिखर पर चढ़ने के लिए चुन गया था, उनमें बिस्सा भी एक थे। लेकिन न तो शिखर पर पहुंचकर और न उसके बाद एनआईएम ने अपने साथी को याद किया।
बिस्सा उसके बाद कभी ठीक नहींहो पाए। इलाज के लिए बीच-बीच में दिल्ली आते रहे। कुछ दिन सुधार के रहे लेकिन हर बार शरीर साथ छोड़ देता था। पिछली 12 सितंबर को उन्हें फिर दिल्ली लाया गया। अगले ही दिन दिल्ली के सुदूर कोने में वसंत कुंज में स्थित दिल्ली सरकार के इंस्टीट्यूट ऑफ लीवर एंड बाइलरी साइंसेज [आईएलबीएस] में उनका दूसरा और 27 सितंबर को तीसरा ऑपरेशन हुआ। हालत उनकी गंभीर है और डॉक्टर कुछ कहने की स्थिति में नहीं। लेकिन इलाज बहुत महंगा है। काठमांडू से लेकर दिल्ली तक उनका परिवार इलाज पर अब तक लगभग नौ लाख रुपये खर्च कर चुका है। आईएलबीएस में इलाज पर रोजाना बीस हजार रुपये खर्च आ रहा है। लेकिन मदद के लिए हाथ आगे नहींआ रहे हैं।
जिस संस्थान के दल का वह हिस्सा थे, उसने संसाधन न होने की बात कहकर मदद करने से पल्ला झाड़ लिया। एनआईएम की स्थापना अक्टूबर 1965 में हुई थी और इसका संचालन रक्षा मंत्रालय और उत्तराखंड सरकार द्वारा संयुक्त रूप से किया जाता है। केंद्रीय रक्षा मंत्री इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री इसके पदेन उपाध्यक्ष। यहां के प्रिंसिपल और वाइस प्रिंसिपल दोनों ही सेना से डेपुटेशन पर आए अफसर होते हैं। ऐसे में इस संस्थान का यह कहना कि उसके पास बिस्सा के इलाज में मदद करने के लिए संसाधनों का अभाव है, हैरान कर देने वाली बात है, जबकि हादसा अभियान के दौरान हुआ था।
तमाम मानकों के अनुरूप अभियान के दौरान होने वाले किसी भी हादसे की नैतिक जिम्मेदारी दल की होती है। संस्थान के प्रिंसिपल कर्नल एम.एम. मसूर खुद अभियान दल के नेता थे। लेकिन मदद करना तो दूर अभियान के बाद एनआईएम ने बिस्सा का हाल तक नहीं लिया। क्रूरता देखिए कि उलटे एनआईएम ने बिस्सा की पत्नी सुषमा से पति के साथ हेलीकॉप्टर में कैंप 1 से काठमांडू आने का एक लाख रुपये का किराया मांग लिया। सुषमा खुद एवरेस्ट अभियान में शामिल थीं, लेकिन वह छोड़कर चली आईं। मसूर दिल्ली में होने के बावजूद उन्हें देखने अस्पताल तक नहीं गए, जबकि बिस्सा एनआईएम के लाइफ मेंबर हैं जो बहुत गिने-चुने होते हैं। इतना ही नहीं, पर्वतारोहण में योगदान के लिए उन्हें सेना पदक मिला हुआ है।
बिस्सा की मदद न ही उनके प्रदेश राजस्थान की सरकार ने की, जबकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उनकी हालत से वाकिफ हैं। पर्वतारोहण के लिए नामाकूल राजस्थान जैसे प्रदेश में बिस्सा को इस क्षेत्र का जनक माना जाता है। बिस्सा को दिल्ली सरकार और उनके खेल मंत्री ने भी नहींपूछा, जहां कई महीनों से उनका इलाज चल रहा है। न ही उनकी सुध हमारे केंद्रीय खेल मंत्री एम.एस. गिल ने ली, जबकि गिल खुद पर्वतारोहण की शीर्ष संस्था इंडियन माउंटेनियरिंग फाउंडेशन [आईएमएफ] के अध्यक्ष रह चुके हैं और बिस्सा को व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं। हां, आईएमएफ ने बेशक अपने स्तर पर डेढ़ लाख रुपये की मदद बिस्सा को दी है। बिस्सा आईएमएफ के भी स्थायी सदस्य हैं। वह नेशनल एडवेंचर फाउंडेशन के राजस्थान व गुजरात चैप्टर के निदेशक भी हैं।
बिस्सा को यह कहने वाले कई मिले कि अगर वे एवरेस्ट चढ़ जाते तो उन्हें करोड़ों मिल जाते। लेकिन एवरेस्ट की राह में पिछले 25 सालों से भी ज्यादा वक्त में उन्होंने कई लोगों की जानें बचाईं, कई को मुसीबत से निकाला, कई लोगों के सपने पूरे करने में जीजान लग दी, कई अभियानों के रास्ते तैयार किए.. क्या उन सबका कोई मोल नहीं? [उपेंद्र स्वामी]
**साभार --- जागरण
बहुत दुखद है। हमारी सरकारो के इसी रवैये के कारण तो कोई बड़ा खिलाड़ी पैदा नही होता....जो कोशिश करते हैं उन की भी जरुरत पड़ने पर कोई सहायता नही की जाती।...यह नेता कुर्सीयां जीतने के लिए पानी की तरह पैसा बहा सकते हैं लेकिन देश का नाम ऊँचा करने की कोशिश करने वालो के लिए कुछ नही कर सकते.......
ReplyDeleteबेहद खेद जनक प्रसंग है सरकार एवं अन्य समाजसेवी संस्थाओं को इनकी मदद को आगे आना चाहिए. धन्यवाद.
ReplyDeleteखेद जनक प्रसंग है सरकार को इनकी मदद को आगे आना चाहिए.
ReplyDeleteब्लॉग जगत में आपका स्वागत हैं, लेखन कार्य के लिए बधाई
आगामी धान तेरस पर्व की बधाई भी आज ही स्वीकार कर लें.
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ReplyDeleteबहुत खेद जनक!
ReplyDeleteआपको एवं आपके परिवार को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें ।
चिटठा जगत में आपका हार्दिक स्वागत है.
ReplyDeleteआप सभी को दिवाली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं.
लेखन के द्वारा बहुत कुछ सार्थक करें, मेरी शुभकामनाएं.
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हिंदी ब्लोग्स में पहली बार Friends With Benefits - रिश्तों की एक नई तान (FWB) [बहस] [उल्टा तीर]