Wednesday, December 23, 2009

क्या भोजपुरी भाषा का विरोध करना या उसे आठवीं अनुसूची से वंचित रखना न्यायोचित है ???? अजीत दुबे


(अजीत दुबे) भोजपुरी हमार मां मूल मंत्र था 29-30 अगस्त 2009 को मारीशस में संपन्न हुए विश्व भोजपुरी सम्मेलन का, जिसका उद्घाटन राष्ट्रपति अनिरुद्ध जगन्नाथ ने किया। उनकी एक ऐतिहासिक घोषणा कि प्रधानमंत्री नवीन रामगुलाम ने मारीशस की संसद में विधेयक पेश किया है कि अंग्रेजी और क्रियोल की भांति भोजपुरी भी राजकीय भाषा होगी ने उपस्थित 16 देशों के प्रतिनिधियों के मन में अपार गर्व और गौरव का बोध कराया। जहां एक तरफ विदेशों में भोजपुरी को इतना सम्मान मिल रहा है,वहीं भारत में आज भी यह समुचित मान्यता से वंचित है।भारतीय संविधान के निर्माताओं ने हिंदी को राजभाषा की मान्यता दी। साथ ही यह भी व्यवस्था की कि सरकार का यह दायित्व होगा कि वह अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का भी विकास करे। इस व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए संविधान की आठवीं अनुसूची में 14 भाषाओं को शुरू में शामिल किया गया। वर्ष 1967 में संविधान के इक्कीसवें संशोधन द्वारा सिंधी को लोगों की मांग के आधार पर आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया। इसी तरह संविधान के 71वें संशोधन द्वारा कोंकणी, मणिपुरी, नेपाली और 92वें संशोधन द्वारा बोडो, डोगरी, मैथिली और संथाली को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया। इन भाषाओं को शामिल करने के पीछे भी वही कारण बताया गया कि यह लोगों की मांग थी। ऐसी ही जोरदार मांग भोजपुरी के लिए भी होती रही है, लेकिन इस पर सरकार का ध्यान अभी तक नहीं जा सका है। सिंधी और नेपाली को किसी भी भारतीय राज्य की भाषा न होते हुए भी शामिल किया गया, लेकिन देश-विदेश में बड़े पैमाने पर बोली जाने वाली और समृद्ध साहित्य वाली भोजपुरी को लगातार नजरअंदाज किया जा रहा है। अगर बोलने वालों की संख्या को ध्यान में रखा जाए तो उपरोक्त आठ भाषाएं भोजपुरी के आगे कहीं भी नहीं ठहरती हैं। इन आठों भाषाओं को बोलने वालों की संख्या 2001 की जनगणना के मुताबिक लगभग 3 करोड़ है, जबकि भोजपुरी बोलने वालों की संख्या 18 करोड़ से अधिक है। यदि बोलने वालों की संख्या की अपेक्षा मांग ही अहम है तो यह मांग भोजपुरी-भाषियों द्वारा भी लगातार होती रही है। भोजपुरी एक व्यापक और समृद्ध भाषा है। कलकत्ता विश्वविद्यालय में आरंभ से ही यह भाषा स्नातक स्तर तक के पाठ््यक्रम में शामिल रही है। पटना विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद वहां भी इसे पाठ््यकय में शामिल किया गया। बिहार के कई विश्वविद्यालयों में यह आज भी पढ़ाई जाती है। गुलाम भारत में अंग्रेजों ने तो इसे आदर और सम्मान दिया, लेकिन आजादी के बाद देसी सरकार से इसे उपेक्षा और तिरस्कार के तीखे दंश ही सहने पड़ रहे हैं। गांधीवादी होने का दावा करने वाले दलों और सरकारों के लिए स्वदेशी का कोई महत्व नहीं रह गया है। चाहे वह तकनीकी हो या संस्कृति, परंपरा हो या शिक्षा-पद्धति या भाषा ही क्यों न हो। अन्यथा क्या कारण है कि मात्र 10 वर्षो के लिए काम-काज की भाषा के रूप में स्वीकृत अंग्रेजी आज भी हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं के सिर पर सवार है। भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की मांग के परिप्रेक्ष्य में वर्ष 2006 में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जयसवाल ने लोकसभा को बताया था कि केंद्र सरकार भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने पर विचार कर रही है। इससे दो साल पूर्व गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने सदन को आश्वासन दिया था कि भोजपुरी को जल्द ही आठवीं अनुसूची में शामिल किया जाएगा। जयसवाल ने वर्ष 2007 में भी कुछ ऐसा ही बयान दिया था। आठवीं अनुसूची में भारतीय भाषाओं को शामिल करने के लिए मानदंड स्थापित करने के उद्देश्य से उच्च अधिकार संपन्न एक समिति का गठन किया गया था, जिसने अप्रैल 1998 में रिपोर्ट दे दी थी। उक्त समिति ने आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के लिए कुछ मानदंडों की अनुशंसा की थी। पहला, वह भाषा राज्य की राजभाषा हो, दूसरा, राज्य विशेष की आबादी के बड़े हिस्से द्वारा बोली जाती हो, तीसरा, साहित्य अकादमी द्वारा मान्यता प्राप्त हो और चौथा, इसका समृद्ध साहित्य हो। उपरोक्त मानदंडों पर भोजपुरी अन्य आठ भाषाओं की अपेक्षा अधिक खरी उतरती है। भोजपुरी में कई महान साहित्यकार हुए हैं, जिन्होंने अनेक कालजयी साहित्य की रचना की है। हिंदी भाषा के पितामह भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा उनके बाद प्रेमचंद और हजारी प्रसाद द्विवेदी एवं अन्य कई समकालीन साहित्यकार भोजपुरी क्षेत्र से आए हैं, जिनके लिए भोजपुरी ने प्रेरणा स्त्रोत के रूप में काम किया है। भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का शेक्सपीयर कहा जाता है। भोजपुरी के साथ कुछ अन्य भाषाओं के लिए भी मांग उठती रही है। इसके विरोध में यह तर्क दिया जा रहा है कि यदि बहुत-सी भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया तो रिजर्व बैंक के लिए उन सभी भाषाओं को नोट पर छापना असंभव हो जाएगा, क्योंकि नोट पर इतनी जगह नहीं है। दूसरा तर्क यह दिया जा रहा है कि संघ लोक सेवा आयोग भी पर्याप्त मूलभूत सुविधा के अभाव में आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं में परीक्षा लेने में समर्थ नहीं है। ये दोनों कारण तर्कसंगत नहीं हैं। न तो आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाओं का नोट पर छापना अनिवार्य है और न ही सभी भाषाओं में परीक्षा लेना। इस संदर्भ में संयुक्त राज्य अमेरिका का उदाहरण देना समीचीन होगा। प्रारंभ में अमेरिका में 13 राज्य थे। उनके प्रतीक रूप में अमेरिकी झंडे में 13 धारियां बनाई गई, जो कि उनके प्राचीन गौरव का प्रतीक है। कालांतर में वहां राज्यों की संख्या बढ़ती गई, जिनके प्रतीक स्वरूप झंडे में सितारों को दर्शाया गया और इस तरह वर्तमान में कुल 50 राज्यों के लिए 50 तारे अमेरिकी झंडे में शोभायमान हैं। इस तरह मूल और नए राज्य, दोनों को समुचित प्रतीक के रूप में झंडे में दर्शाया गया है। रिजर्व बैंक और संघ लोक सेवा आयोग की समस्याओं के समाधान के लिए अमेरिकी झंडे के उदाहरण को ध्यान में रखा जा सकता है यानी नोटों पर केवल प्रारंभिक 14 भाषाओं में ही लिखा जा सकता है और बाद में शामिल की गई भाषाओं को किसी संकेत के रूप में दर्शाया जा सकता है। इसी तरह संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं के बारे में निर्णय लिया जा सकता है। एक दूसरा विकल्प भी सोचा जा सकता है। बोलने वालों की संख्या के आधार पर 10 बड़ी भाषाओं का नाम ही नोटों पर लिखा जाए और अन्य भाषाओं को किसी संकेत के रूप में दिखाया जाए। संघ लोक सेवा आयोग भी केवल 10 बड़ी भाषाओं को ही परीक्षा का माध्यम बनाने की व्यवस्था रखे और अन्य भाषाओं को विकल्प के रूप में मान्यता दे दे। इस तरह रिजर्व बैंक और संघ लोक सेवा आयोग की समस्याओं का समाधान हो जाएगा, लेकिन केवल इसी समस्या के नाम पर भोजपुरी भाषा का विरोध करना या आठवीं अनुसूची से वंचित रखना बिल्कुल न्यायोचित नहीं है।
(लेखक भोजपुरी समाज, दिल्ली के अध्यक्ष है- इनके ब्लॉग पर जाने के लिये क्लिक करे) http://ajitdubeydelhi.blogspot.com/

Tuesday, December 8, 2009

आशाराम बापू ने अपने आश्रम में अब तक 25 लड़कों का मर्डर करवाया है। ड्रामाबाज संत का एक और सच..


आशाराम बापू ने अपने आश्रम में अब तक 25 लड़कों का मर्डर करवाया है। आशाराम और इसका नालायक बेटा नारायण स्वामी आश्रम के युवक और युवतियों का यौन शोषण करते है। अगर इसकी सीबीआई जांच कराई जाए तो दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। यह खुलासा किया है आशाराम के बेटे नारायण स्वामी के सचिव रह चुके महेंद्र चावला ने। नारायण स्वामी के पूर्व सचिव ने आज अपनी जानमाल की रक्षा की गुहार सरकार से लगाते हुए इस संबंध में एक मामला दर्ज कराया है। बकौल महेंद्र चावला नारायण स्वामी ने उसे जान से मारने की धमकी दी है।उधर, अपने ऊपर लगे आरोपों से बौखलाये तथाकथित संत आशाराम बापू ने अब सरकार, पुलिस और मीडिया को ही ललकारते हुए परिणाम भुगतने की चेतावनी दी है। सत्संग के दौरान घड़ी-घड़ी ड्रामा करने वाले इस तथाकथित संत ने सोमवार को अपने सैकड़ों अनुवायियों को भड़काते हुए धमकी भरे अंदाज में कहा कि अगर एक महीने के अंदर आरोप लगाने वालों व मीडिया को नहीं निपटाया तो मैं ढाढी मुंछ मुड़वा लूंगा। इस संत ने खुलेआम अपने अनुवायियों को भड़काते हुए नरेंद्र मोदी की सरकार, पुलिस और मीडिया को धमकी दी है। आखिर एक महीने में यह तथाकथित संत क्या कर लेगा? आखिर यह संत अपने भक्तों की भावनाओं को भड़का कर क्या साबित करना चाहता है?तो क्या कानूनी शिकंजा कसने के बाद इस तथाकथित संत का मानसिक संतुलन खराब होता जा रहा है?..

Sunday, December 6, 2009

आशाराम बापू का सच..यह संत है या शैतान


आशाराम बापू का कई महिलाओं के साथ अवैध रिश्ता है। यह संत के भेष में हवस का पुजारी है। आशाराम बापू को मैने आश्रम की कई साधिकाओं के साथ शारीरिक संबंध बनाते हुए देखा है। यह काला जादू करता है। महिलाओं पर यह तीन-तीन घंटे तक तांत्रिक क्रिया करता है। बाद में उनमें कई के साथ शारीरिक संबंध भी बनाता है। जी, हां अपने आप को स्ंवभू भगवान मानने वाले आशाराम बापू का यह सच है। इस सच का खुलासा किया है राजू चांडक ने। राजू चांडक आशाराम का सबसे करीबी पूर्व अनुयायी है। राजू चांडक के इस खुलासे से एक बार फिर धर्म का चोला ओढ़ कर लोगों की भावनाओं से खेलने वाले पाखंडी संतों की मानसिकता उजागर हुई है। वैसे तो धर्म के नाम पर देश में तमाम चोर उचक्के संत बन कर लोगों को बेवकूफ बनाते रहते है। परंतु आशाराम जैसे तथाकथित संतों की असलियत अगर यही है तो इस देश का भगवान ही मालिक है। मैने देखा है लोगों को आंख बंद कर आशाराम के सत्संगों में दौड़ जाते है, सबसे ज्यादा दीवानगी तो महिलाओं में होती है। तो क्या..आशाराम पहले भी कई विवादों में घिरे रहे है। आशाराम के बेटे पर भी आश्रम की कई साधिकाओं के साथ यौन शोषण का आरोप लग चुका है। जुलाई 2008 में अहमदाबाद स्थित उनके आश्रम में दो छात्र रहस्यमय परिस्थितियों में मृत पाए गए थे। उन पर काला जादू कर तांत्रिक क्रिया किये जाने का आरोप लगा था। उस मामले में अभी भी आशाराम संदेह के घेरे में है। उनके अनुयायियों पर सूरत में जमीन हड़पने के भी आरोप हैं। पिछले माह उनके करीब 200 अनुयायियों को एक रैली के दौरान पुलिस पर पथराव करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था। अपने आप को संत कहने वाले आशाराम खुलेआम मीडिया से कई बार गाली-गलौज कर चुके है। अगर वास्तव में संत का आचरण ऐसा होगा तो शैतान कैसा होगा, हम इसकी कल्पना कर सकते है।

Wednesday, December 2, 2009

देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद का गांव बदहाली व उपेक्षा का शिकार


नई दिल्ली [चंदन जायसवाल]। दुनिया के हर देश जिस तरह अपने युगपुरुषों के धरोहरों को संजो कर रखते है, उसी तरह भारत भी अपने युगपुरुषों की धरोहरों, स्मृति और प्रतीक चिंहों को संजो कर रखे हुए है। देश ने जहां महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, लाल बहादूर शास्त्री आदि के समाधि, स्मृति व गांवों में बसे उनकी यादों को संजो कर संरक्षित किए हुए है, वहीं इन सभी महापुरुषों के साथ कंधा से कंधा मिला कर आजादी की लड़ाई लड़ने वाले देश के प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद का गांव बदहाली व उपेक्षा का शिकार है।
उनके पैतृक निवास को भले ही भारतीय पुरातत्व विभाग ने संरक्षित स्मारक घोषित कर दिया है, परंतु विकास का तो यहां से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। सिवान जिला मुख्यालय से लगभग 16 किलोमीटर दूर जीरादेई गांव में डा. राजेंद्र प्रसाद का जन्म तीन दिसंबर 1884 को मुंशी महादेव सहाय के परिवार में हुआ था। लगभग 5 बीघा जमीन में फैले उनके इस निवास में महात्मा गांधी के ठहरने के कमरे सहित कई कमरों में खिड़की-किवाड़ तक नहीं है, जो है वो भी सड़ चुका है।
गांव के अंदर राजेंद्र बाबू का कोठी के मुख्य द्वार से बाएं तरफ एक पुराना कुंआ है। लोग बताते है कि इसी कुंए से राजेंद्र बाबू समेत उनका परिवार पानी पीता था। कुएं से आगे बाएं तरफ एक कैटल हाउस है, जो अब वीरान हो चुका है। मुख्य द्वार से दाहिनी तरफ तीन जर्जर कमरे है, जहां कभी औषधालय हुआ करता था। बिहार में नई सरकार बनने के बाद जीरादेई को प्रखंड का दर्जा दिया जा चुका है, परंतु यहां की बदहाली में कोई बदलाव नहीं आया। तमाम आश्वासनों के बावजूद गांव के एक मात्र राजेंद्र स्मारक महाविद्यालय को मान्यता नहीं मिल सकी है। इसी तरह शिक्षकों और कमरों के अभाव में राजेंद्र बाबू के बड़े भाई के नाम पर चल रहे विद्यालय की स्थिति दयनीय है। मध्य विद्यालय और कन्या विद्यालय की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है।
गांव में चिकित्सा व्यवस्था की हालत तो और भी दयनीय है। जीरादेई के मवेशी अस्पताल में थाना चल रहा है, जबकि छह शैय्या वाले अस्पताल के अधिकांश हिस्से पर पुलिस का कब्जा है। गांव में एक आयुर्वेदिक अस्पताल है, जिसका उद्घाटन खुद तत्कालिन राष्ट्रपति डा. राजेंद्र प्रसाद ने ही किया था, परंतु वह भी अपने हालात पर आंसू बहा रहा है। भवन इतना जर्जर हो चुका है कि यह कभी भी ढह सकता है। गांव में न को कोई पुस्तकालय है, न शुद्ध पानी की कोई व्यवस्था। सड़क और बिजली की स्थिति तो बेहद दयनीय है।
यहां अशिक्षा और बेरोजगारी का आलम यह है कि युवा पीढ़ी नशे की गिरफ्त में है। शराब बिक्री के सख्त विरोधी रहे राजेंद्र बाबू के गांव में शराब की अवैध बिक्री धड़ल्ले से हो रही है। अवैध शराब के कारोबार ने यहां की युवा पीढ़ी को बर्बादी के कगार पर ला कर खड़ा कर दिया है। देशरत्न के गांव की बदहाली पर सिवान से नवनिर्वाचित निर्दलिय सांसद ओमप्रकाश यादव भी मानते है कि राजेंद्र बाबू की जन्मस्थली सरकार की नजरों से उपेक्षित है। पहली बार सांसद बने ओमप्रकाश यादव का कहना है कि जीरादेई को एक पर्यटक स्थल के रूप में विकसित करने हेतु मैं प्रयासरत हूं। इसके लिए मुझे सरकार की तरफ से विश्वास दिलाया गया है कि केंद्र सरकार जल्द ठोस कदम उठाएगी। उनका कहना था कि पुलिस थाना के लिए जमीन अधिगृहीत हो चुका है, लेकिन फंड के अभाव में मवेशी अस्पताल में थाना चल रहा है। इस समस्या का भी समाधान शीघ्र हो जाएगा।
बहरहाल, देशरत्न के गांव का हाल देख कर मवेशियों का चारागाह बने राजेंद्र शिशु उद्यान में उनकी प्रतिमा के नीचे अंकित ये पक्तियां-
हारिए ना हिम्मत बिसारिए ना हरिनाम
.जाहि विधि राखे राम, ताहि विधि रहिए। ..उनके चाहने वालों को जरूर थोड़ी सांत्वना देती रहती है।

**साभार --- जागरण http://in.jagran.yahoo.com/

Tuesday, November 3, 2009

5 अक्टूबर से 26 मई, 2010 तक मंगल राशि कर्क में ही रहेंगे जो अशुभ फलदायी है


अराजकता, उन्माद और दुर्घटनाओं के पीछे किसी अन्य कारक को दोषी मान रहे हों तो धारणा बदल लीजिए। ज्योतिषियों का मानना है कि इन सारी घटनाओं के पीछे नीच की राशि कर्क में चल रहे मंगल ग्रह का हाथ है। मंगल की खुराफात व साजिश में नीच राशि में चल रहे कुछ अन्य ग्रह भी बढ़चढ़ कर उसका साथ दे रहे हैं।
लाल रंग का मंगल शुभ का प्रतीक माना जाता है। यह पराक्रम देने वाला भी है लेकिन यदि नीच राशि में हो तो अशुभ का बड़ा कारक बन जाता है। समाज में अराजकता, उन्माद के साथ ही दुर्घटनाओं का बढ़ना अशुभ मंगल के कारण ही होता है और वर्तमान में ग्रह मंगल की स्थिति अशुभ चल रही है। मंगल अपने से काफी नीच राशि कर्क में विचरण कर रहे हैं। लाल रंग के मंगल ग्रह को रक्त का संवाहक भी बताया जाता है लेकिन यदि मंगल की दृष्टि वक्री हो तो वह खून भी बहाता है। अशुभ करने में मंगल ग्रह का साथ नीच राशि में चल रहे गुरु, सूर्य, शुक्र ग्रह भी दे रहे हैं।
वर्तमान में बृहस्पति [गुरु] की चाल भी वक्री है। बृहस्पति राहू के साथ मिलकर गुरु चांडाल योग बना रहे हैं। जो जातक के मस्तिष्क पर दुष्प्रभाव डाल रहा है। इसी प्रकार नीच राशि के शुक्र के साथ शनि है, मंगल के साथ केतु हैं। नीच के सूर्य के साथ बुध हैं जो अशुभ फल दे रहे हैं।
ग्रह नक्षत्रम् ज्योतिष शोध संस्थान के निदेशक व ज्योतिषाचार्य आशुतोष वाष्र्णेय के अनुसार मंगल-केतु अग्नि तत्व हैं। दोनों का एक साथ कर्क राशि में मिलन विध्वंसकारी होता है। उनके मुताबिक आम तौर पर मंगल ग्रह एक राशि में लगभग डेढ़ माह तक रहता है किन्तु अबकी पांच अक्टूबर से लेकर 26 मई, 2010 तक करीब आठ माह नीच राशि कर्क में ही रहेंगे जो अशुभ फलदायी है। इस समयावधि में अराजकता और दुर्घटनाएं बढ़ सकती हैं। जिसकी कुंडली में मंगल कमजोर होगा वह जातक कुछ ज्यादा प्रभावित होंगे। नीच मंगल कष्ट पहुंचायेगा।
नीच मंगल का राशियों पर प्रभाव
मेष-कष्ट और शत्रुभय
वृष-सुख, धन लाभ
मिथुन-धन हानि, नेत्र कष्ट कर्क-अज्ञात भय, पीड़ा
सिंह-रोग और शोक
कन्या-सभी सुख, लाभ
तुला-मिश्रित भाव
वृश्चिक-रोग देगा
धनु-बुद्धि भ्रम
मकर-कार्य व धन हानि
कुंभ-सुख, लाभ
मीन-धन हानि, रोग भय
[जिनकी कुंडली में मंगल अकारक होगा, अशुभ स्थान पर बैठा होगा उन्हें कष्ट प्राप्त होगा]
दुष्प्रभाव से बचने के उपाय
मेष-मूंगा धारण करें
वृष-हनुमान जी की पूजा करें मिथुन-मंगल स्त्रोत पाठ करें कर्क-मोती, मूंगा धारण करें
सिंह-सूर्य को अ‌र्घ्य दें
कन्या-भ्राता को लाल रंग की वस्तु भेंट करें
तुला-गुड़ का दान करें
वृश्चिक-मूंगा धारण करें
धनु-सुंदरकाण्ड की पुस्तक मंदिर में दान करें
मकर-लाल वस्तु का दान करें कुंभ-हनुमान जी की पूजा करें मीन-मंगल यंत्र की पूजा करें

**साभार --- जागरण

Wednesday, October 28, 2009

अब हिंदी में होगा डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू..!


हो सकता है कि जल्द ही आपको अपनी मनपसंद वेबसाइट का पता अंग्रेजी के बजाय हिंदी में भी टाइप करने को मिल जाए।
अगर इंटरनेट कॉर्पोरेशन फॉर असाइन्ड नेम्स ऐंड नंबर्स (आईसीएएनएन) हरी झंडी दिखा देता है तो डब्ल्यू डब्ल्यू डब्ल्यू डॉट जैसे वेब ऐड्रेस हिंदी और तमिल जैसी देसी भाषाओं में भी आपको मिल सकते हैं। ऐसा होने पर भारत में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की तादाद मौजूदा 5 करोड़ से बढ़कर कई गुना हो सकती है।
दुनिया भर में तकरीबन 160 करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं और उनमें से 50 फीसदी से अधिक लैटिन के अलावा दूसरे अक्षरों वाली लिपि पर आधारित भाषाओं का इस्तेमाल करते हैं। डोमेन नामों पर नजर रखने वाले गैर मुनाफे वाले संगठन आईसीएएनएन ने इसी हफ्ते दुनिया भर से अपने प्रतिनिधियों की बैठक सोल में बुलाई है।
उसमें वेब पते हिंदी और तमिल में दिए जाने पर फैसला होगा। यदि ऐसा हो गया, तो इंटरनेट के 40 साल के इतिहास का यह सबसे बड़ा बदलाव होगा। इसके बाद गैर अंग्रेजी डोमेन नामों के आवेदन भी स्वीकार होने लगेंगे और अगले साल की दूसरी छमाही में ऐसे नाम मिलने भी लगेंगे।

वेब पर नामों में फिलहाल 21 सफिक्स (वेब पते के अंत में इस्तेमाल होने वाले शब्द) लगाए जाते हैं। इनमें डॉट कॉम सबसे ज्यादा इस्तेमाल होता है और तकरीबन 80 फीसदी वेब पतों में इसका इस्तेमाल किया जाता है।
इसके अलावा डॉट नेट, डॉट इन्फो या देश से संबंधित सफिक्स जेसे डॉट इन भी इस्तेमाल होते हैं। लेकिन अगर नए बदलाव हो जाते हैं, तो आपको डॉट इंडियन, डॉट मुंबई, डॉट दिल्ली, डॉट अमिताभ बच्चन, डॉट पेरिस जैसे सफिक्स भी अपने वेब पते के अंत में लगाने को मिल जाएंगे।
हां, आपको उनके लिए कीमत भी अदा करनी होगी और यह कीमत 40 लाख से 2 करोड़ रुपये के बीच कुछ भी हो सकती है। कॉर्पोरेट दिग्गज भी डॉट टाटा, डॉट अंबानी, डॉट बिड़ला और डॉट रिलायंस जैसे नामों के लिए आवेदन कर सकते हैं।

इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनी नेट4इंडिया के प्रबंध निदेशक और सीईओ जसजीत साहनी ने मानते हैं कि भारत में इसमें कुछ वक्त लग जाएगा क्योंकि तकनीकी दिक्कतें रोड़ा बनेंगी। दरअसल फिलहाल आप हिंदी में दुकान शब्द तो टाइप कर सकते हैं, लेकिन डॉट कॉम को हिंदी में टाइप नहीं किया जा सकता।
इस मामले में आईसीएएनएन सभी देशों के सूचना प्रौद्योगिकी विभागों से बात कर रहा है ताकि डॉट कॉम का सही अर्थ हिंदी या तमिल में मिल सके। साहनी कहते हैं, 'डॉट कॉम को हिंदी में क्या कहेंगे? आपको इसका फैसला तो करना ही होगा।'

सभार बी यस

Tuesday, October 13, 2009

दिल्ली के एक गुमनाम से अस्पताल में जिंदगी के लिए जद्दोजहद


कई जिंदगियां और महत्वाकांक्षाएं उनकी कर्जदार हैं लेकिन आज वह अपनी जिंदगी बचाने के लिए किसी कर्ज का मुंह ताक रहे हैं। ऐसा इसलिए कि भारत में हम उपलब्धियों की पूजा करते हैं लेकिन प्रतिभाओं की कद्र नहीं करते। मगन बिस्सा की गिनती देश के सबसे कुशल पर्वतारोहियों में होती है, लेकिन आज वह दिल्ली के एक गुमनाम से अस्पताल में जिंदगी के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं, केवल पर्वतारोहण के लिए अपने जुनून की वजह से। मदद के अभाव में महंगा इलाज उनके दम पर भारी पड़ रहा है।
1984 में मगन बिस्सा केवल इसलिए माउंट एवरेस्ट पर कदम नहीं रख पाए क्योंकि शिखर से महज तीन सौ मीटर नीचे उन्होंने अपना ऑक्सीजन सिलेंडर वहां उखड़ती सांसों के साथ बैठे एक पर्वतारोही को दे दिया। उसकी सांसें बनाए रखने के लिए उन्होंने अपनी सांसों में पल रहे एवरेस्ट पर विजय के सपने को बर्फ में दफन कर दिया। उस समय वह उस दल का हिस्सा थे जिसमें बछेंद्री पाल देश की पहली महिला एवरेस्ट विजेता बनी थी। बछेंद्री की उसी जीत के 25 साल और एवरेस्ट पर पहले भारतीय अभियान के 50 साल पूरे होने की याद में जब उत्तरकाशी के नेहरू इंस्टीट्यूट ऑफ माउंटेनियरिंग [एनआईएम] ने इस साल पहली बार एवरेस्ट पर एक अभियान दल भेजा तो बिस्सा उसके भी सदस्य थे। लेकिन दक्षिणी सिरे से चढ़ाई में 23500 फुट की ऊंचाई पर स्थित कैंप 3 से नीचे आते वक्त दुर्र्दात माने जाने वाले खुंभु आइसफॉल के निकट कई पर्वतारोही दल जबरदस्त हिमस्खलन की चपेट में आ गए।
यह 7 मई की बात है। उसी रात कैंप 1 में बिस्सा की तबियत बेहद खराब हो गई। उन्हें तड़के हेलीकॉप्टर से काठमांडू भेजा गया। पता चला कि उनकी आंतों में गैंगरीन हो गया है। 8 मई को वहां उनका ऑपरेशन हुआ और उनकी 22 फुट लंबी छोटी आंतों में से 18 फुट हिस्सा काटकर निकाल देना पड़ा। 19 मई को उन्हें वहां से छुट्टी मिली और 20 मई को वह दिल्ली होते हुए अपने गृह नगर बीकानेर पहुंचे। अगले दिन 21 मई को एनआईएम के दल के दस लोगों ने एवरेस्ट पर झंडा लहराया। शुरू में कैंप 3 के बाद जिन दस लोगों को शिखर पर चढ़ने के लिए चुन गया था, उनमें बिस्सा भी एक थे। लेकिन न तो शिखर पर पहुंचकर और न उसके बाद एनआईएम ने अपने साथी को याद किया।
बिस्सा उसके बाद कभी ठीक नहींहो पाए। इलाज के लिए बीच-बीच में दिल्ली आते रहे। कुछ दिन सुधार के रहे लेकिन हर बार शरीर साथ छोड़ देता था। पिछली 12 सितंबर को उन्हें फिर दिल्ली लाया गया। अगले ही दिन दिल्ली के सुदूर कोने में वसंत कुंज में स्थित दिल्ली सरकार के इंस्टीट्यूट ऑफ लीवर एंड बाइलरी साइंसेज [आईएलबीएस] में उनका दूसरा और 27 सितंबर को तीसरा ऑपरेशन हुआ। हालत उनकी गंभीर है और डॉक्टर कुछ कहने की स्थिति में नहीं। लेकिन इलाज बहुत महंगा है। काठमांडू से लेकर दिल्ली तक उनका परिवार इलाज पर अब तक लगभग नौ लाख रुपये खर्च कर चुका है। आईएलबीएस में इलाज पर रोजाना बीस हजार रुपये खर्च आ रहा है। लेकिन मदद के लिए हाथ आगे नहींआ रहे हैं।
जिस संस्थान के दल का वह हिस्सा थे, उसने संसाधन न होने की बात कहकर मदद करने से पल्ला झाड़ लिया। एनआईएम की स्थापना अक्टूबर 1965 में हुई थी और इसका संचालन रक्षा मंत्रालय और उत्तराखंड सरकार द्वारा संयुक्त रूप से किया जाता है। केंद्रीय रक्षा मंत्री इसके पदेन अध्यक्ष होते हैं और उत्तराखंड के मुख्यमंत्री इसके पदेन उपाध्यक्ष। यहां के प्रिंसिपल और वाइस प्रिंसिपल दोनों ही सेना से डेपुटेशन पर आए अफसर होते हैं। ऐसे में इस संस्थान का यह कहना कि उसके पास बिस्सा के इलाज में मदद करने के लिए संसाधनों का अभाव है, हैरान कर देने वाली बात है, जबकि हादसा अभियान के दौरान हुआ था।
तमाम मानकों के अनुरूप अभियान के दौरान होने वाले किसी भी हादसे की नैतिक जिम्मेदारी दल की होती है। संस्थान के प्रिंसिपल कर्नल एम.एम. मसूर खुद अभियान दल के नेता थे। लेकिन मदद करना तो दूर अभियान के बाद एनआईएम ने बिस्सा का हाल तक नहीं लिया। क्रूरता देखिए कि उलटे एनआईएम ने बिस्सा की पत्‍‌नी सुषमा से पति के साथ हेलीकॉप्टर में कैंप 1 से काठमांडू आने का एक लाख रुपये का किराया मांग लिया। सुषमा खुद एवरेस्ट अभियान में शामिल थीं, लेकिन वह छोड़कर चली आईं। मसूर दिल्ली में होने के बावजूद उन्हें देखने अस्पताल तक नहीं गए, जबकि बिस्सा एनआईएम के लाइफ मेंबर हैं जो बहुत गिने-चुने होते हैं। इतना ही नहीं, पर्वतारोहण में योगदान के लिए उन्हें सेना पदक मिला हुआ है।
बिस्सा की मदद न ही उनके प्रदेश राजस्थान की सरकार ने की, जबकि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत उनकी हालत से वाकिफ हैं। पर्वतारोहण के लिए नामाकूल राजस्थान जैसे प्रदेश में बिस्सा को इस क्षेत्र का जनक माना जाता है। बिस्सा को दिल्ली सरकार और उनके खेल मंत्री ने भी नहींपूछा, जहां कई महीनों से उनका इलाज चल रहा है। न ही उनकी सुध हमारे केंद्रीय खेल मंत्री एम.एस. गिल ने ली, जबकि गिल खुद पर्वतारोहण की शीर्ष संस्था इंडियन माउंटेनियरिंग फाउंडेशन [आईएमएफ] के अध्यक्ष रह चुके हैं और बिस्सा को व्यक्तिगत तौर पर जानते हैं। हां, आईएमएफ ने बेशक अपने स्तर पर डेढ़ लाख रुपये की मदद बिस्सा को दी है। बिस्सा आईएमएफ के भी स्थायी सदस्य हैं। वह नेशनल एडवेंचर फाउंडेशन के राजस्थान व गुजरात चैप्टर के निदेशक भी हैं।
बिस्सा को यह कहने वाले कई मिले कि अगर वे एवरेस्ट चढ़ जाते तो उन्हें करोड़ों मिल जाते। लेकिन एवरेस्ट की राह में पिछले 25 सालों से भी ज्यादा वक्त में उन्होंने कई लोगों की जानें बचाईं, कई को मुसीबत से निकाला, कई लोगों के सपने पूरे करने में जीजान लग दी, कई अभियानों के रास्ते तैयार किए.. क्या उन सबका कोई मोल नहीं? [उपेंद्र स्वामी]

**साभार --- जागरण

Sunday, September 27, 2009

हार्ट अटैक का कारण कोलेस्ट्राल का बढ़ना ....बचाव के उपाय

हाल के वर्षो में देश में दिल के मरीजों की संख्या तेजी से बढ़ी है। ज्यादातर इसके लिए बदलती जीवनशैली और खानपान की गलत आदतें जिम्मेदार होती हैं। आमतौर पर हृदय की बीमारियों और हार्ट अटैक का कारण कोलेस्ट्राल का बढ़ना होता है। जब रक्त में कोलेस्ट्राल की मात्रा बढ़ जाती है तो यह रक्त कोशिकाओं में जमकर हृदय की बीमारियों को आमंत्रित करती है।
क्या है कोलेस्ट्राल - कोलेस्ट्राल एक तरह का वसा होता है जिसे लिपिड कहते हैं। शरीर इसका नई कोशिकाओं के निर्माण के लिए इस्तेमाल करता है। लिवर भी कोलेस्ट्राल बनाता है। इसके अलावा हमारा खानपान भी इसके लिए जिम्मेदार होता है। शरीर को कुछ कोलेस्ट्राल की जरूरत होती है। लेकिन यह जरूरत से ज्यादा हो जाए तो धमनियों में जम जाता है। हृदय से शुद्ध खून धमनियों के माध्यम से शरीर के भिन्न हिस्से तक पहुंचता है। लेकिन यह प्रक्रिया धीरे-धीरे बाधित होने लगती है और आगे चलकर हार्ट अटैक का कारण बन जाती है।
क्या हैं लक्षण- उच्च कोलेस्ट्राल होने पर बीमार होने का एहसास नहीं होता। लेकिन यही अगर धमनियों में बनने लगे तो दिल और दिमाग तक खून के प्रवाह को पहुंचने से रोकता है। इससे हार्ट अटैक का खतरा काफी बढ़ जाता है। कोलेस्ट्राल खून और उससे जुड़े प्रोटीन के माध्यम से शरीर में पहुंचता है। प्रोटीन और लिपिड को संयुक्त रूप से लिपोप्रोटींस कहते हैं। यह प्रोटीन या वसा की मात्रा के अनुपात के मुताबिक उच्च या निम्न घनत्व वाले होते हैं।

लो डेंसिटी लिपोप्रोटीन (एलडीएल) : इन्हें खराब कोलेस्ट्राल कहा जाता है। इसमें वसा ज्यादा और प्रोटीन बहुत कम होता है। यह धमनियों को अवरूद्ध कर देता हैं।

हाई डेंसिटी लिपोप्रोटीन (एचडीएल) : इन्हें अच्छा कोलेस्ट्राल कहा जाता है। इसमें वसा के मुकाबले प्रोटीन ज्यादा पाया जाता है। यह खून से खराब कोलेस्ट्राल को बाहर निकालने में मदद करता है। यह हार्ट अटैक का खतरा घटाता है।

ट्राइग्लिसराइड्स : खून में पाया जाने वाला एक तरह का वसा है। यह सेहत के लिए हानिकारक होता है।कैसे बनता है ट्राइग्लिसराइड्स खानपान : खाने में संतृप्त वसा, ट्रांस वसा और कोलेस्ट्राल इसके बढ़ने के लिए जिम्मेदार होते हैं। यह मीट, दूध, अंडे की जर्दी, मक्खन, चीज, रेडीमेड खाने और स्नैक आदि में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।
वजन : वजन बढ़ने से ट्राईग्लिसराइड्स और एचडीएल घट जाता है। धू्रमपान से एचडीएल कम होने की संभावना बढ़ जाती है।

कम सक्रियता : नियमित व्यायाम न करने से भी एलडीएल बढ़ता है और एचडीएल कम होने का खतरा रहता है। आमतौर पर उम्र बढ़ने के साथ एलडीएल बढ़ने का खतरा भी बढ़ जाता है। पुरुषों में ज्यादातर 40 के बाद बढ़ता है। जबकि महिलाओं में रजोनिवृत्ति तक कम रहता है उसके बाद यह पुरुषों के स्तर के बराबर बढ़ता है।
परिवार : कई परिवार में यह बीमारी अनुवांशिक होती है। यदि ऐसा है तो इसका इलाज युवावस्था में शुरू कर देना चाहिए।

बचाव के उपाय : -जीवनशैली में बदलाव और दवाओं के इस्तेमाल से इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है। एलडीएल के कम होने से हार्ट अटैक का खतरा भी घट जाता है।-संतृप्त वसा और ट्रांस एसिड वाले खानपान को कम खाएं। यह मक्खन और मिठाई में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। कोशिश करें कि भोजन में फाइबर युक्त खाद्य पदार्थ ज्यादा से ज्यादा हो।

-वजन को घटा कर भी इस पर नियंत्रण पाया जा सकता है। इससे ब्लड प्रेशर भी काबू में रहता है।

-नियमित रूप से व्यायाम करें। इससे एचडीएल बढ़ता है। यह दिल के लिए फायदेमंद है और वजन को बढ़ने से रोकता है।

-डाक्टर की सलाह लेकर दवाओं का इस्तेमाल करें।

-खाने में लहसुन, सोयाबीन, जौ का आटा, मक्का आदि शामिल करें। खूब फल और सब्जियां खाएं।

-प्रतिदिन एक से दो लीटर पानी जरूर पिएं।-खाने में नमक की मात्रा को कम करें। इससे ब्लड प्रेशर को नियंत्रित करने में मदद मिलती है।

-अगर आप धू्रमपान करते हैं तो इसे बंद कर दें। इससे एचडीएल को बढ़ाने में मदद मिलेगी। स्मोकिंग दिल के लिए काफी घातक होती है।

Monday, September 14, 2009

आखिर एक दिन तो पत्नियों के नाम होना ही चाहिए


पति, पत्नी को जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए माना जाता है और कहा जाता है कि एक पहिए पर गाड़ी नहीं चलती। लेकिन जीवन के हर मोड़ पर बराबरी से साथ देने वाली ''बेटर हाफ'' को सराहना कभी कभार ही मिल पाती है और उसके काम को उसके दायित्व की संज्ञा दे दी जाती है।मेरा मानना है कि अगर हम अपनी जीवनसाथी की थोड़ी सी सराहना कर दे तो उसका उत्साह दोगुना हो जाएगा। लेकिन समस्या वही है हमारी मानसिकता। जब तक हमारी मानसिकता नहीं बदलेगी, सराहना के शब्द पत्नियों को मिलने मुश्किल हैं। कई पतियों को पत्नियों का काम नजर ही नहीं आता, वे उनकी सराहना कैसे करेंगे।''अमेरिका में 16 सितंबर को ''वाइफ एप्रीसिएशन डे'' मनाया जाता है। हमारे यहां भी इसकी शुरूआत होनी चाहिए। यह अच्छी बात है। कहीं न कहीं इससे परिवार की नींव मजबूत होगी। आखिर एक दिन तो पत्नियों के नाम होना ही चाहिए। पतियों के लिए वह सब कुछ करती हैं तो एक दिन उनके काम को महत्व देने के लिए तय करना चाहिए। वैसे भी अक्सर कहा जाता है कि पुरूष की सफलता के पीछे महिला का हाथ होता है।
महात्मा गांधी ने अपनी आत्मकथा ''माई एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ'' में अपनी पत्नी कस्तूरबा की सराहना करने में कोई कमी नहीं की है। बा और बापू ने 60 साल से भी अधिक समय एक दूसरे के साथ बिताया था। बापू मानते थे कि उनके जीवन के हर मोड़ पर बा ने स्वच्च्छा से उनका पूरा साथ दिया था। जब बा ने अंतिम सांस ली तब बापू ने व्यथित हो कर कहा था ''बा के बिना जीवन की मैं कल्पना भी नहीं कर सकता।'' अहिंसा के इस पुजारी ने अपनी आत्मकथा में माना है कि सत्याग्रह की कला और विज्ञान उन्होंने कस्तूरबा से ही सीखा। उन्होंने लिखा है कि बा का जीवन प्रेम, समर्पण, और बलिदान का पर्याय था। बा कभी भी बापू और उनके सिद्धांतों के बीच नहीं आई। ''स्लमडॉग मिलिनेयर'' फिल्म के लिए आस्कर पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले भारतीय संगीतकार ए आर रहमान कई बार अपने मौजूदा मुकाम के लिए अपनी पत्नी सायरा बानो के योगदान का जिक्र कर चुके हैं। उनकी पत्नी मीडिया के सामने गिने चुने मौकों पर ही आई हैं।''पत्नी की तारीफ करने के लिए बड़ा दिल बहुत ही कम पतियों के पास होता है। ज्यादातर तो अहम ही आड़े आता है। ''मुझे लगता है कि पत्नियां पतियों से सराहना की अपेक्षा भी नहीं रखतीं। वे अपने काम को अपना दायित्व मानती हैं और पतियों को भी लगता है कि दायित्व की सराहना क्यों की जाए।'' इतिहास देखें तो दायित्वों के निर्वाह में महिलाएं कभी पीछे नहीं रहीं। आजादी की लड़ाई में पतियों के साथ पत्नियों ने भी भाग लिया। लेकिन बात एक ही जगह ठहर जाती है और वह है ''पुरूष प्रधान समाज'' की। यहां महिलाओं को सराहना मिलना दूर की कौड़ी है। (कंचन लता)

Sunday, September 13, 2009

क्या यही है हमारी की संवेदनशीलता?


देश की राजधानी दिल्ली में सरेआम ट्रैफिक रेड लाइट पर एक युवक चलती कार से महिला को घसीट कर बाहर कर देता है और फिर कार लेकर फरार हो जाता है। वजह सिर्फ इतनी सी कि वह महिला छेड़खानी पर अपना विरोध दर्ज कराती है जिस पर वह युवक भड़क जाता है। यूं तो यह देश के अन्य शहरों में महिलाओं के खिलाफ होने वाली हिंसा की तुलना में कोई बहुत बड़ी नजर नहीं आती लेकिन इसका मैग्नीट्यूड तब ज्यादा हो जाता है जब इसका संबंध, दिल्ली और वह भी रेड लाइट जहां पुलिस के अलावा सैकड़ों लोग हर वक्त मौजूद रहते हैं, से हो। इतने लोगों की मौजूदगी के बावजूद महिला की मदद के लिए कोई नहीं आया। महिला की बेटी अपनी मां को बचाने के लिए चिल्लाती रही।

क्या यही है हमारी की संवेदनशीलता? दुनिया भर में अपनी तत्परता का डंका पीटने वाली पुलिस आखिर क्या कर रही थी? क्या वहां मौजूद लोगों में से किसी को अपनी जिम्मेदारी का एहसास नहीं था? या सबको 'कौन पचड़े में पड़े' सिंड्रोम ने जकड़ रखा था। यह वह सिंड्रोम है जो हमारी तमाम समस्याओं की जड़ है। इसी की वजह से लोग सड़क पर तड़पते किसी घायल को अस्पताल तक पहुंचाने की जहमत नहीं उठाते, न ही आस-पड़ोस की किसी समस्या को तवज्जो देते हैं। शहरियों में यह सिंड्रोम कुछ ज्यादा की कारगर होता है। अगर दस लोगों ने सिर्फ तेज आवाज में बोल ही दिया होता तो शायद उस शोहदे को कुछ सबक ज़रूर मिला होता लेकिन जो हुआ वह तो उसका हौसला और बढ़ाने वाला है। आगे वह ऐसी हरकत दोहराने से कतई नहीं हिचकिचाएगा। ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए अगर हम पुलिस को केवल जिम्मेदार मान लें तो कोई सॉल्यूशन नहीं निकलेग। इसके लिए शहरियों को खुद आगे आकर हौसला दिखाना होगा।

Saturday, September 12, 2009

क्रिएशन से शुरू हुआ टोरंटो फिल्म फेस्टिवल


पिछले तीन दशक से प्रतिष्ठित टोरंटो फिल्म फेस्टिवल की शुरुआत कनाडा की किसी फिल्म से होती आ रही है। लेकिन इस बार आयोजकों ने कई दशक पुरानी परंपरा को बदलते हुए एक ब्रिटिश फिल्म को मौका दिया। ब्रिटेन की बहुचर्चित फिल्म 'क्रिएशन' के प्रदर्शन से इस समारोह की रंगारंग शुरुआत हुई। फिल्म को इस साल आस्कर पुरस्कार का प्रमुख दावेदार माना जा रहा है। 'क्रिएशन' महान वैज्ञानिक चा‌र्ल्स डार्विन के जीवन और उनकी विश्व विख्यात कृति 'आन द ओरिजिन आफ स्पीशीज' से संबंधित है। समारोह के सह-निदेशक कैमरून बेली ने बताया 'हालांकि फिल्म की विषय वस्तु क्भ्0 साल पुरानी है। लेकिन इसकी प्रासंगिकता आज भी बरकरार है।' उल्लेखनीय है कि डार्विन के नेचुरल सेलेक्शन के सिद्धांत ने मानव विकास की गुत्थी सुलझाई थी। इस फिल्म में दिखाया गया है कि मानव का विकास चरणबद्ध ढंग से हुआ। चा‌र्ल्स डार्विन इस सिद्धांत को खारिज करते हैं कि मानव की सृष्टि ईश्र्वर ने की है। फिल्म में पाल बेटेनी ने डार्विन की भूमिका निभाई है। इस किताब को लिखने से पहले डार्विन ने समुद्र के रास्ते पूरी दुनिया का भ्रमण किया और अपने तर्क को साबित करने के लिए तथ्य जुटाए। डार्विन ने अपने प्रयास और तर्को से ईश्वर के अस्तित्व को ही चुनौती दे दी। इस वजह से उन्हें काफी आलोचना भी सहनी पड़ी। यहां तक की उनकी पत्नी भी उनकी विरोधी हो गई।